जलाओ तुम भी कुछ इबारतें
हम भी कुछ पन्ने जला ही देते है इस बेतुकी किताब के
जिसे लिख के गए थे कुछ मतवाले लोग
देश चलाने का ताना बुना था
जुर्रत की थी हमें समझाने की के कौन राह चलनी है
आओ बता दे खुल के
हमें मंज़ूर नहीं ये जो तुम्हारी जुर्रत थी
नफरतों के बीज
कोई आज ही तो किसी ने बोए नहीं है
इस कृषि प्रधान देश को
ये फसल तो अभी कई सदियों तक काटनी है
तुम क्या फंदे से झूल जाते हो सिर्फ भूख से मजबूर होकर
तुम हमसे सीखो के नफरत की आग से पेट कैसे भरता है
नींद भी गजब की आती है
H.P.RAHI