जब पिघलता हुआ रोशन सितारा
अपनी आखरी चाल चलता है , खूनी बाज़ी लगाता है
और हार जाता है आसमानी समंदर से हर बार
डूब जाता है
जब शाम ढले साये घर लौटते वक़्त
धुंधले धुंधले निशान आवाज़ों के छोड़ जाते है
रात वो सारे बटोर लेती है
ईंधन जमा करती है
जब रातो के सन्नाटो में
दो जिस्म उबलते है , पिघलते है
एक नयी कहानी बुनते है
सुबह तलक उफ़क पे उकेरते है
हर रोज़ एक नयी परवाज़ लिए
नन्हे परिंदे अपनी शाखों से दूर
क्षितिज की आग़ोश में जाते है
उम्मीद एक और नए दिन की लिए
सहराओ में रेत के दरिया है
जो ठहरे हुए भी बहते से लगते है
जाने किसकी आमद के इंतज़ार में वहा
समय पड़ा हुआ दोपहर काटता है
जब उजाले चीखते है
टुकड़ा टुकड़ा होकर ज़मीन बिखर जाती है
एक कतरा अब्र की तलाश में
निगाहें शाम तलक सिर्फ धोखा खाती है
क्रम जारी है बदस्तूर यही सदियों से
सदियों का ये खेल बहोत निराला है |
H.P.RAHI