नज़्म कुर्बान कर दी , बस एक रात के लिए ,
नींद खा जाती , कागज़ पे जिंदा उतर आती जो ,
नज़्म का क्या है , कल फिर रूबरू हो आएगी ,
फुरकते यार है , नींद कहा रोज आएगी ।
H.P.RAHI
नज़्म कुर्बान कर दी , बस एक रात के लिए ,
नींद खा जाती , कागज़ पे जिंदा उतर आती जो ,
नज़्म का क्या है , कल फिर रूबरू हो आएगी ,
फुरकते यार है , नींद कहा रोज आएगी ।
H.P.RAHI
गुमशुदा मिल गया वजुद मेरा ,
सरे राह जो खोया था जानशीं मेरा ।
तिरे जहां में कुछ तो मिला मुझे ए खुदा ,
वोह तसव्वुर के इरादों का नज़ारा मेरा ।
बंदिशे इश्क फ़साने को जाने क्या कहिये ,
बंदिशों का करम ही तो है मुकद्दर मेरा ।
तुमको देखे के शबे आफताब देखे ,
क्या क्या नहीं है आज जमाना मेरा ।
ख़ुशबुओ की चमन को आहट है ,
सुनते रहिएगा आप आज फ़साना मेरा ।
रूबरू देखा जो सहरा-ओ-समंदर मैंने ,
याद आ गया वोह मिलन था जो तुम्हारा मेरा ।
H.P.RAHI
जख्म जब अश्को को पी लेता है ,
जिंदगी को तमाम जी लेता है ।
वक़्त हो जाता है बदनाम खुद ही ,
बिजलिया जब कलियों पे गिरा देता है ।
तनहा तन्हाईयो में एक आस फूटी जाती है ,
जब दरख्तों पे कोई नाम मेरा लिखता है ।
उनसे न कीजियेगा तुम इर्ष्या ,
कभी साकी जहर भी पी जाता है ।
सुबह होने को पल में गिनता हूँ ,
नींद में कोई आवाज़ दे के जाता है ।
दिल से मिलता नहीं किसी से मैं ,
इक लुटे घर में ऐसे क्यों कोई आ जाता है ।
नीलाम कोई क्या होगा किसी के लिए ,
ये “राही” तो हर मंजिल पे बिका जाता है ।
H.P.RAHI
टूटे रोशनदानो, खिडकियों की धुप को ढको जरा
यह पुराने रद्दी अख़बार भी कुछ काम आये
आते जाते नज़र ही पड़ जाये तो
चेहरे को मुस्कान, शायद , आँखों को नमी मिल जाये
कभी खबरों से लाल लाल रहा करते थे
अब उम्र हुयी तो लहू पिला पड़ गया है इनका
अजीब सी बू भी आती है
बूढी अम्मा हमेशा चिल्लाती रहती है
“किसी रद्दी वाले को बेच दो ”
कैसे बेच दू ? इनमे से ही किसी अखबार में
बाबूजी का शोक सन्देश छपा था
मुन्ने का नाम भी आया था
साइंस फेयर में डिस्ट्रिक्ट लेवल पर फर्स्ट जो आया था
फुर्सत रहती नहीं के छाटू और फिर काटू वोह सब खबरे
एक क़र्ज़ भी है इन रद्दी कागजों का मुझ पर
मेरी कई नज्मो का बोझ लिया था इन्होने
जाने कितने मानी , बेमानी से बिखरे पड़े होंगे
सोचता हूँ के कभी मिलेगा वक़्त मुझे जरूर
तो छाटूंगा , काटूँगा सब खबरे
समेटून्गा मानी बिखरे हुए सारे
उस दिन किसी पहाड़ पे जाके राकेट बनाकर उडा दूंगा
और जहाज बना कर जमुना में बहा दूंगा
शायद किसी सुलगती खबर को थोड़ी सी नमी मिल जाये
किसी पुरानी उम्मीद को हवा मिल जाये ।
H.P.RAHI
कुछ लिखू दिल करता है,
क्या लिखू? अहसास या जज्बात?
अहसास लिखू तो फूल और खुशबू लिखू ,
और कांटे लिखू तो गुलाबी जज़्बात |H.P.RAHI
उस सूखे कुए में मुझे चाँद टुकडो में पड़ा मिला ,
खुदखुशी करने चला था , किरचे बिखरी पड़ी थी हर ओर ,
कुछ बुझी सी थी , कुछ में अभी थोड़ी रोशनी बाकि थी ,
पूनम का होगा जब कूदा होगा , घट के चौथे का नज़र आता है ,
मैंने अपने कैनवास पर उस रात एक सूरज भी उगाया था ,
जो सुबह होते होते शाम हो गया ,
सिर्फ पीछे छुटे झुलसे कुछ निशान ,
मेरी जमा पूंजी , यह झुलसे उम्रे निशान ,
मैं कलाकार , मेरे साथ बस एक चौथे का चाँद ।
H.P.RAHI
तिनके का सहारा क्या होता है , आज मुझे मालूम हुआ ,
शैतानो की बस्ती में मुझे भा गया तेरा इंसान होना |H.P.RAHI
मुझे खौफ है , किसी दिन , मेरी दास्ता तक न होगी ,
निकलेगा चाँद तब भी , एक करार की जिद पे |
कब से थी नज़र को , सदियों की बदनसीबी ,
फिर जला आशियाना , मेरे ऐतबार की हद पे |
रही खुदाई परेशां , एक सवाल की अरज से ,
मैं गुज़रा कई सहरा , एक जवाब की तलब पे |
कातिल का नाम कैसे , निकले मेरी जुबा से ,
ता उम्र बस गया वोह , आवाज़ की लरज़ पे |
H.P.RAHI
तुज बिन कैसे? क्यों? किसलिए?
वादे पे क्यों? जिए मरे रोये ?
कोई ख्याल , क्यों सताए? किसलिए?
आसू सूखे तो खून क्यों रोये ?
ढूंढा किये समंदर वोह ,
सहराओं में भटके यो ,
बेजा तलाशी आसमान में ,
नोच गिराए तारे क्यों ?
शोले जले , राख हो गए ,
शब् भर जागे , झुलस गए ,
राख मलकर घावो पर ,
झुलसा दिए फिर शोले क्यों ?
H.P.RAHI
तेरे शहर में कैसे कैसे उल्फत के सामान मिले ,
जर्द सी गलियों में बेजा जिस्मो के औजार मिले |H.P.RAHI
चाँद का वज़न कुछ बढ़ा हुआ सा मालूम होता है ,
आज फिजा में तपिश कुछ ज्यादा थी ,
दिन भर धुप के अफशाओ की खुराक ज्यादा हो गयी होगी|H.P.RAHI
अफशा – पकवान |
उडी है धुप , उस गुफा की तरफ , जिसका नाम दिल पड़ा था ,
तेरे नाम से जब भी सहर खोलता हूँ मैं ,
कुछ दिल के खजाने मैं कैद करता हूँ मैं |H.P.RAHI
रात में ओढ़े चांदनी , दिन में सूरज चन्दन ,
दाना दाना पेट का जशन , और तिनका नशेमन ,
मौला , करम पे तेरे एक फकीरन , नसीबन |H.P.RAHI
मेरे शहर की रात वाला , तनहा तनहा चाँद ,
कुछ देर पहले देखा था ,
मेरे घर के सामने एक मंदिर के गुम्बद से लटक रहा था ,
अब रोड के किनारे वाली मस्जिद की छत पर आ गिरा है ,
वहा से लुढ़केगा जरूर कुछ देर में ,
जमीन पर आ गिरेगा तो मैला हो जायेगा ,
सोचता हूँ बुझा दू रात और बचा लू चाँद को ,
या गिरने दू , और छिपा के घर ले आऊ ,
रख लू एक दिन के लिए ,
कल शहर के उजालो से बहोत दूर,
तारो की हिफाज़त में दे आऊंगा , वहा दोस्तों के बीच रहेगा |
H.P.RAHI
माजी जाने कहा कहा से ले आता है ,
यादो के गुलमोहरो से लम्हों की शाखे तोड़कर ,
आदत में है आजकल इसके ,
हाथो में इसके कही से एक कुल्हाड़ी आ गयी है ,
गुलाबी,
एक किताबी संदूक में छिपाकर रखी थी ,
मैं बस टहनीया सुखाकर जला देता हूँ ,
रात पश्मीने की तनहा बसर नहीं होती |
H.P.RAHI
Remembering Jagjit Singh JI at Sirifort Auditorium, Delhi with Gulzar, Bhupinder and Mitali.
वोह लम्हा जो धुंधला अब भी मौजूद है ,
कोई धकेल देता है उसे जब आगे ,
मेरे रोंगटे खड़े हो जाते है उस बार की तरह ,
आज भूपिंदर की आवाज़ मुझे फिर वही ले गयी ,
जहा तुमने सिर्फ गुनगुनाया था थोडा सा ,
और पब्लिक ने तुम्हे आगे गाने न दिया ,
खुद गाया था , “होठो से छु लो तुम”,
एक रूहानी सफ़र था वोह ,
और हजारो ने साथ निभाया था | H.P.RAHI
Wrote after coming back to jaipur from kashmir trip in summer’11
हम पहुचे थे बड़ी जिद के साथ वादी ए कश्मीर ,
बहोत खुबसूरत है माना हमने, वादी ए कश्मीर ,
मगर हमें तो ज़िन्दगी की नमी इन लू के थपेड़ो में ही वापस मिली |H.P.RAHI
My First Film “Kiski Kahani” got selected in Jaipur International Film Festival (JIFF).
Check this link – http://www.jiffindia.org/documents/2nd%20%20List%20of%20Nominated%20films-JIFF%202012.pdf
एक ख्वाब ही तो है ,
रात कट जाती है मेरी , तेरा क्या जाता है ?
क्यों हर बार आकर शीशे तोड़ जाता है ?
जब होता हूँ उस मोड़ पर ,
जहा से रेल की पटरी गुज़रती है ,
जिस पर कभी एक ट्रेन गुजरी थी ,
किसी मुसाफिर की आमद का वक़्त भी हुआ था ,
हर बार सोचता हूँ , हवा के पंख पकड़ कर ,
चंद मील मैं भी सफ़र कर लू ,
मैं हाथ बढ़ाता हूँ तो तेरा क्या जाता है ?
क्यों हर बार आकर शीशे तोड़ जाता है ?
रात को जब उजाले जागते है ,
तब एक दूर जाते खुशबु से साए का ,
देर तक का पीछा करते करते ,
कुछ दहलिज़े ज़माने के पार जाता हूँ ,
कभी कभी चाँद के उस ओर भी जाता हूँ ,
तेरे बदन तक वक़्त भर में पहोच पाता हूँ ,
तेरी बाहों तक आता हूँ तो तेरा क्या जाता है ?
क्यों हर बार आकर शीशे तोड़ जाता है ?
कभी कही नहीं जा पाता , कभी दूर तक निकल जाता हूँ ,
एक ख्वाब ही तो है , तेरा क्या जाता है ?
H.P.RAHI
तुम आग में जले हो कभी , तुम बार बार मरे हो कभी ?
तुम जब कही नहीं थे तब कहा पर थे ?
कौन राह चले थे जब रुके रुके से थे ?
ख़ामोशी को सुन कर देखा है, कैसा लगता है ?
यह अँधा कुआ झाका है कभी , कैसा लगता है ?
सन्नाटो के शहर में आकर , धुन कोई छेड़ी है कभी ?
पत्थरो के जंगलो में नदी बनकर बहे हो कभी ?
आसान से जो नज़र आते है , इरादे जिए है कभी ?
कभी सूरज को पीकर देखा है , कैसा लगता है ?
कभी चाँद चुरा के देखा है , कैसा लगता है ?
जब जंग छिड़ी थी बागीचे में , तुमने भी कुछ फूल तोड़े थे ,
कुछ सफिने तुमने भी डुबोये थे , कुछ राहे तुमने भी तनहा छोड़ी थी ,
क्या सोचा है कभी , उस पार क्या बिता है वक़्त अब भी ?
रूठे हुए कुछ साये , सूखे हुए पत्तो जैसे कुछ साये ,
जिन्दा साये , मुर्दा साये , उस पार क्या बिता है वक़्त अब भी ?
कभी मुड़कर पीछे देखा है , कैसा लगता है ?
कोई छोटा सा वादा भी जीकर देखा है , कैसा लगता है ?
H.P.RAHI