आज कुछ पुराने ख़त टटोल रहा था ,
जिंदगी की ताजगी से भरी उन यादो को ,
फिर से जीने चला था |
कितने रंग बिखरे हुए थे उन सफ़ेद कागजो पर , जिंदगी कितनी रंगीन थी ,
कभी तेरी शिकायत ने मुझसे नज़र भर ली ,
कभी रुलाई तेरी मेरे लबो पे इनाम बन गयी ,
और कभी तेरे खून के धब्बे देख मेरी सासे तेज़ हो गयी ,
कितनी शिद्दत थी जो भी करते थे , मौसिकी हो जैसे सास लेना भी ,
लबरेज़ ख्वाबो से चश्म , दिखाई भी वही देता था जो चाहते थे ,
ज़माने भर का ज़ज्बा अपनी जेब में लेकर महोब्बत करते थे |
कुछ चुभा शायद , एक चूड़ी का टुकड़ा छुपा बैठा था उस कागज़ के पीछे ,
एक दाग तेरे खूं के आगे मेरा भी लग गया , लाल से लाल मिल गया ,
और एक ज़ख्म फिर से हरा हो गया |
मेरे गुनाह का भागिदार यह समाज था भी, नहीं भी ,
वोह बात अनसुनी कर देता तो क्या बिगड़ जाता ,वैसे भी अब कहा कुछ सुनाई देता है ,
धड़कन से लेकर ज़मीर तक की आवाज़ दब के रह जाती है मेरे दंभ के शोर में ,
इस समाज के ठेकेदारों में अब मैं भी तो गिना जाता हूँ |
तुझसे वोह आखरी मुलाकात अब भी धुंधली नहीं हुयी मेरे जहन में ,
मेरी हमनफस मुझे माफ़ करना , तेरे कद से मेरी लम्बाई छोटी पड़ गयी थी ,
सारा साहस बस उस शाम दरिया में बह गया था ,
तेरा मुसलमाँ होना मेरी महोब्बत पर भारी पड़ गया था |
H.P.RAHI
Wow..last line just gave me goosebumps…i particularly like the ending… ending was brilliant…many aitmes poem starts well but loose the steam when coming to end… but this is different, I am not a literature critic, don’t know in whihc genre should it be put, but if there is ever a lover who fell in love with person from other religion will just got blown away by this..
keep rocking RAHI:)
Start and end was very good….Overall its have a message so like it….keep it up!