लहू दिल से खरोंच लू
दिल करता है
क़त्ल हो जाना मुश्किल है
कौन कहता है ?
टूट के बिखर जाये कभी
उस दहलीज़ पे जाकर
रश्क हो जाये उन्हें मुझपे
मन होता है |
बेशुमारी शामिल थी
हर चीज़ में अपनी
बेहयाई भी होती कुछ
कितना सहता है ?
H.P.RAHI
लहू दिल से खरोंच लू
दिल करता है
क़त्ल हो जाना मुश्किल है
कौन कहता है ?
टूट के बिखर जाये कभी
उस दहलीज़ पे जाकर
रश्क हो जाये उन्हें मुझपे
मन होता है |
बेशुमारी शामिल थी
हर चीज़ में अपनी
बेहयाई भी होती कुछ
कितना सहता है ?
H.P.RAHI
दिलजले दिल यु खुदाओं की खुदाई रोए
जलते हुए खत ज्यो असीरी की रिहाई रोए
दर्द-ए-चारागिरी तो वस्ल-ए-मयख़ाने में थी
और हम बस एक मुलाक़ात की दुहाई रोए
तजरूबा खूब रहा उल्फत-ए-मुसीबत का
लोग क्यों खाम्ख्वा यार-ए-जुदाई रोये
जाने कितने हिसाब होने को थे लेकिन
जिंदगी बस वक़्त को ही गवाही रोये |
असीरी – कैद , चारागिरी – इलाज़ , वस्ल – मिलन
H.P.RAHI
कुछ वबा सी हर ओर महक रही है
मेरे वतन में आजकल सियासत उबल रही है
कई से बा-अदब , कई से बे-अदब
आबरू ए हर आम उछल रही है
कुछ तख़्त नशीनो से कुछ तख्ते आशिक़ों तक
रोज़ खैरातें तिलिस्म बट रही है
कौन जागे , क्यों ही जागे , क्या पड़ी है
जिंदगी को सब तजुर्बा है , सो चल रही है ।
वबा – महामारी , सियासत – राजनीती , बा-अदब – इज्जत के साथ, बे-अदब – बेइज्जती के साथ , तख़्तनशीन – गद्दी पर काबिज
H.P.RAHI
Wrote for the dearest friend Vishal Chaudhary on his Engagement –
वक़्त गुज़रता रहा जैसे
शिद्दत और बढ़ती रही वैसे
एक जूनून हो गया था तुझे पाना
आज जब वोह ख्वाब मुकम्मिल हुआ
तो लगा जैसे जूनून ख़तम नहीं हुआ
शिद्दत अभी पूरी नहीं हुई , और भड़की है
जैसे शोलो को हवा दे दी हो किसी ने
यह मंज़िल नहीं है मेरे लिए
रास्ता अभी और भी है
बस अकेले चलना मुनासिब नहीं था
तेरा साथ मिला तो लगा जैसे
मुश्किलें कम तो नहीं पर आसान हो गयी है ।
H.P.RAHI
इक चुभन सी है आखों में ,
कुछ तो गिरा होगा
इक कंकर आखो में
इक ख्वाब आखो से
– DT
इतना आसान नहीं लहू रोना
दिल है जो धड़कने का सबब जानता है
क़त्ल हो जाता जमानो पहले
ये निरा चाँद मगर कब मानता है
H.P.RAHI
कुछ मायने कुछ आकार समझाती है
जिंदगी जब दर्द में मुस्कुराती है
H.P.RAHI
फुरक़ते यार है , दिल कैसे भुलाओगे उन्हें
यु खुले जख्म , भला कैसे छुपाओगे उन्हें
ऐसे बिखरे है फिज़ाओ में जफ़ाओ के समां
जैसे सहराओ में भटकी हुई गुलशन की दुआ
जैसे छिल जाते है जिस्मो में उम्मीदों के निशां
कितने वादों के सिले कैसे निभाओगे उन्हें
फुरक़ते यार है
टुकडो टुकडो में बटी फिरती है हर रात यहाँ
जैसे काटे नहीं कटती कभी माज़ी की खिज़ा
जैसे होती ही नहीं उम्रे अज़ाबो से रिहा
क्या पुकारेगी सदा क्या ही सुनाओगे उन्हें
फुरक़ते यार है
फुरक़त – विरह , जफा – अन्याय , सहरा – रेगिस्तान , माज़ी – अतीत , खिजा – पतझड़ , अज़ाब – पीड़ा
H.P.RAHI
दौर वो भी था
दौर ये भी है
कल भी गुज़रा था
आज भी कहा ठहरा है
रात की खामोश निगाहें
बस सुबह तलक जागेंगी
फिराक है फिराक ही सही
गमे यार के चंद रोज़ा
उम्र तलक क्या साथ आयेंगे
ज़िन्दगी रिंदगी से बहोत अलग होती है
तुम भी जानते हो तुमको भी खबर है
बस एक गर्द सी तुमने बिछा रखी है
जब भी साँस आये , या जिंदा हो आओ तुम
तो मुड के देखना पीछे
तुम्हारी बस एक नफ़स से उड़े गर्दे गुबार के सिवा
कुछ नज़र शायद ही आये तुम्हे ।
H.P.RAHI
कभी शायद यु भी होता
इस रिंदगी का कुछ सिला होता
मैं मरता मगर मर के ही सही
मेरे नाम पे कोई मयकदा होता |
H.P.RAHI
नज़्म कुर्बान कर दी , बस एक रात के लिए ,
नींद खा जाती , कागज़ पे जिंदा उतर आती जो ,
नज़्म का क्या है , कल फिर रूबरू हो आएगी ,
फुरकते यार है , नींद कहा रोज आएगी ।
H.P.RAHI
गुमशुदा मिल गया वजुद मेरा ,
सरे राह जो खोया था जानशीं मेरा ।
तिरे जहां में कुछ तो मिला मुझे ए खुदा ,
वोह तसव्वुर के इरादों का नज़ारा मेरा ।
बंदिशे इश्क फ़साने को जाने क्या कहिये ,
बंदिशों का करम ही तो है मुकद्दर मेरा ।
तुमको देखे के शबे आफताब देखे ,
क्या क्या नहीं है आज जमाना मेरा ।
ख़ुशबुओ की चमन को आहट है ,
सुनते रहिएगा आप आज फ़साना मेरा ।
रूबरू देखा जो सहरा-ओ-समंदर मैंने ,
याद आ गया वोह मिलन था जो तुम्हारा मेरा ।
H.P.RAHI
जख्म जब अश्को को पी लेता है ,
जिंदगी को तमाम जी लेता है ।
वक़्त हो जाता है बदनाम खुद ही ,
बिजलिया जब कलियों पे गिरा देता है ।
तनहा तन्हाईयो में एक आस फूटी जाती है ,
जब दरख्तों पे कोई नाम मेरा लिखता है ।
उनसे न कीजियेगा तुम इर्ष्या ,
कभी साकी जहर भी पी जाता है ।
सुबह होने को पल में गिनता हूँ ,
नींद में कोई आवाज़ दे के जाता है ।
दिल से मिलता नहीं किसी से मैं ,
इक लुटे घर में ऐसे क्यों कोई आ जाता है ।
नीलाम कोई क्या होगा किसी के लिए ,
ये “राही” तो हर मंजिल पे बिका जाता है ।
H.P.RAHI
टूटे रोशनदानो, खिडकियों की धुप को ढको जरा
यह पुराने रद्दी अख़बार भी कुछ काम आये
आते जाते नज़र ही पड़ जाये तो
चेहरे को मुस्कान, शायद , आँखों को नमी मिल जाये
कभी खबरों से लाल लाल रहा करते थे
अब उम्र हुयी तो लहू पिला पड़ गया है इनका
अजीब सी बू भी आती है
बूढी अम्मा हमेशा चिल्लाती रहती है
“किसी रद्दी वाले को बेच दो ”
कैसे बेच दू ? इनमे से ही किसी अखबार में
बाबूजी का शोक सन्देश छपा था
मुन्ने का नाम भी आया था
साइंस फेयर में डिस्ट्रिक्ट लेवल पर फर्स्ट जो आया था
फुर्सत रहती नहीं के छाटू और फिर काटू वोह सब खबरे
एक क़र्ज़ भी है इन रद्दी कागजों का मुझ पर
मेरी कई नज्मो का बोझ लिया था इन्होने
जाने कितने मानी , बेमानी से बिखरे पड़े होंगे
सोचता हूँ के कभी मिलेगा वक़्त मुझे जरूर
तो छाटूंगा , काटूँगा सब खबरे
समेटून्गा मानी बिखरे हुए सारे
उस दिन किसी पहाड़ पे जाके राकेट बनाकर उडा दूंगा
और जहाज बना कर जमुना में बहा दूंगा
शायद किसी सुलगती खबर को थोड़ी सी नमी मिल जाये
किसी पुरानी उम्मीद को हवा मिल जाये ।
H.P.RAHI
मैं हवा हूँ..या हूँ माटी?
मैं हूँ जीवन..या हूँ काठी?
मैं ख्याल हूँ..या हूँ सपना?
मैं पराया हूँ..या हूँ अपना?
मैं स्पर्श हूँ..या हूँ चुभन?
मैं मुट्ठी हूँ..या हूँ गगन?
मैं हंसी तेरी..या नमकीन जल?
मैं ज़िन्दगी तेरी..या बस इक पल?
तू जानती नहीं मुझे..या में तुझसे बना?
हर पल है मेरा..कुछ अर्थ नया।
– DT
इस रंग रंगीली दुनिया में, हर इन्सां है बदरंग
फिर भी देख ऐ मन बावरे, हर कोई खेले है सतरंज
सुना बहुत है, है दुनिया कोई इश्क वालों की, जहाँ है सुकूं
यहाँ तो बस करते देखा इन्सां को अपनों का ही खूं
क्या सच है और क्या है भरम, ये कौन है बता पा रहा
हर जगह देखो इक कठपुतली, इक कठपुतली है नचा रहा।
– DT
कुछ लिखू दिल करता है,
क्या लिखू? अहसास या जज्बात?
अहसास लिखू तो फूल और खुशबू लिखू ,
और कांटे लिखू तो गुलाबी जज़्बात |H.P.RAHI
उस सूखे कुए में मुझे चाँद टुकडो में पड़ा मिला ,
खुदखुशी करने चला था , किरचे बिखरी पड़ी थी हर ओर ,
कुछ बुझी सी थी , कुछ में अभी थोड़ी रोशनी बाकि थी ,
पूनम का होगा जब कूदा होगा , घट के चौथे का नज़र आता है ,
मैंने अपने कैनवास पर उस रात एक सूरज भी उगाया था ,
जो सुबह होते होते शाम हो गया ,
सिर्फ पीछे छुटे झुलसे कुछ निशान ,
मेरी जमा पूंजी , यह झुलसे उम्रे निशान ,
मैं कलाकार , मेरे साथ बस एक चौथे का चाँद ।
H.P.RAHI
तिनके का सहारा क्या होता है , आज मुझे मालूम हुआ ,
शैतानो की बस्ती में मुझे भा गया तेरा इंसान होना |H.P.RAHI
मुझे खौफ है , किसी दिन , मेरी दास्ता तक न होगी ,
निकलेगा चाँद तब भी , एक करार की जिद पे |
कब से थी नज़र को , सदियों की बदनसीबी ,
फिर जला आशियाना , मेरे ऐतबार की हद पे |
रही खुदाई परेशां , एक सवाल की अरज से ,
मैं गुज़रा कई सहरा , एक जवाब की तलब पे |
कातिल का नाम कैसे , निकले मेरी जुबा से ,
ता उम्र बस गया वोह , आवाज़ की लरज़ पे |
H.P.RAHI