फुरक़ते यार है , दिल कैसे भुलाओगे उन्हें
यु खुले जख्म , भला कैसे छुपाओगे उन्हें
ऐसे बिखरे है फिज़ाओ में जफ़ाओ के समां
जैसे सहराओ में भटकी हुई गुलशन की दुआ
जैसे छिल जाते है जिस्मो में उम्मीदों के निशां
कितने वादों के सिले कैसे निभाओगे उन्हें
फुरक़ते यार है
टुकडो टुकडो में बटी फिरती है हर रात यहाँ
जैसे काटे नहीं कटती कभी माज़ी की खिज़ा
जैसे होती ही नहीं उम्रे अज़ाबो से रिहा
क्या पुकारेगी सदा क्या ही सुनाओगे उन्हें
फुरक़ते यार है
फुरक़त – विरह , जफा – अन्याय , सहरा – रेगिस्तान , माज़ी – अतीत , खिजा – पतझड़ , अज़ाब – पीड़ा
H.P.RAHI